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इन्द्रा॒बृह॒स्पती॑ व॒यं सु॒ते गी॒र्भिर्ह॑वामहे। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrābṛhaspatī vayaṁ sute gīrbhir havāmahe | asya somasya pītaye ||

पद पाठ

इन्द्रा॒बृह॒स्प॒ती॒ इति॑। व॒यम्। सु॒ते। गीः॒ऽभिः। ह॒वा॒म॒हे॒। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:49» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्राबृहस्पती) अध्यापक और उपदेशकजनो ! जैसे (वयम्) हम लोग (गीर्भिः) वाणियों से (अस्य) इस (सोमस्य) ओषधियों से उत्पन्न हुए रस के (पीतये) पान के लिये आप दोनों का (हवामहे) स्वीकार करते हैं, वैसे (सुते) रस के उत्पन्न होने पर हम लोगों का स्वीकार करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि परस्पर के सत्कार से बड़े ऐश्वर्य्य का भोग करें ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

[हे] इन्द्राबृहस्पती ! यथा वयं गीर्भिरस्य सोमस्य पीतये युवां हवामहे तथा सुतेऽस्मानाह्वयत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राबृहस्पती) अध्यापकोपदेशकौ (वयम्) (सुते) निष्पन्ने (गीर्भिः) (हवामहे) स्वीकुर्महे (अस्य) (सोमस्य) ओषधिजातस्य रसस्य (पीतये) पानाय ॥५॥
भावार्थभाषाः - राजप्रजाजनैः परस्परस्य सत्कारेण महदैश्वर्य्यं भोक्तव्यम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजेने परस्पर सत्कार करून ऐश्वर्याचा भोग घ्यावा. ॥ ५ ॥